सुल्तानपुर की ऐतिहासिक दुर्गा पूजा का इतिहास और संस्कृति कुशभवनपुर की

रिपोर्ट_प्रभ जोत सिंह जिला ब्यूरो चीफ

अर्चना नारायण जिला संवादाता

इंडेविन टाइम्स न्यूज नेटवर्क 

सुल्तानपुर।यूं तो दुर्गापूजा का आयोजन पूरे मुल्क में होता है लेकिन सुलतानपुर की दुर्गा पूजा का अपना एक अलग ही मुकाम है. कोलकाता के बाद अगर दुर्गापूजा की कहीं धूम है तो वह है सुलतानपुर. खास बात यह कि जहां पूरे भारत में मां दुर्गा की प्रतिमाओं का विसर्जन दशमी को हो जाता है वहीं सुलतानपुर में विसर्जन इसके पांच दिन बाद यानी पूर्णिमा को होता है.

इस सबसे अलग यहां की खास बात है गंगा जमुनी तहजीब. दूसरे इलाकों में जहां तनाव की खबरें सुनाई देती हैं. वहीं यहां सभी धर्मों के लोग इस ऐतिहासिक उत्सव को मिल जुल कर मनाते हैं. शायद यही वजह है कि पिछले 6 दशकों से चली आ रही इस अनोखी परम्परा ने इसे खास और ऐतिहासिक बना दिया है.

कोलकाता शहर के बाद अगर दुर्गापूजा देखनी हो तो शहर सुलतानपुर आइये. मंदिरों का रूप लिये जगह-जगह बन रहे पंडाल और पंडालों में स्थापित हो रहीं अलग अलग रूपों की प्रतिमायें बरबस आपको अपनी ओर खींच लेंगी. शहर की कोई गली कोई कोना बाकी नही जहां इस ऐतिहासिक उत्सव की धूम ना हो 

सुल्तानपुर दुर्गा पूजा का इतिहास

61 वर्ष से चले आ रहे दुर्गापूजा महोत्सव में पिछले साल जिले में कुल 895 स्थानों पर दुर्गा प्रतिमाएं स्थापित होती रही हैं।

जिले में दुर्गापूजा महोत्सव का बड़ा महत्व है। पूरे जनपद में इस महोत्सव को उल्लास के साथ मनाया जाता है। शहर में ही करीब 200 पंडाल बनाए जाते हैं। ग्रामीण अंचलों को मिला लिया जाय तो यह संख्या 895 हो जाती है। इसमें देवी के अलग-अलग रूप की मूर्तियां स्थापित होती हैं।कहीं सुपारी से निर्मित प्रतिमा तो कहीं रुद्राक्ष से निर्मित देवी प्रतिमा स्थापित की जाती हैं। ठठेरी बाजार में बड़ी दुर्गा की स्थापना की जाती है। बाटा गली में गुफा बनाकर देवी प्रतिमा स्थापित होती हैं ।

 विवेकनगर, करौंदिया, लखनऊ नाका, शाहगंज चौराहा समेत अन्य प्रमुख मोहल्लों में देवी प्रतिमाएं आयोजित कर दुर्गापूजा महोत्सव मनाया जाता है।जिले में दुर्गापूजा का शुभारंभ 1959 में ठठेरी बाजार में भिखारीलाल सोनी व उनके सहयोगियों ने शुरू किया था। यहां से शुरू हुआ दुर्गापूजा का सिलसिला समय के साथ ही बढ़ता ही गया। दूसरी मूर्ति की स्थापना रुहट्ठा गली में बंगाली प्रसाद सोनी ने 1961 में कराई।1970 में दो प्रतिमाएं और जुड़ीं। इसके अगले वर्ष कालीचरन ने श्री संतोषी माता और राजेंद्र प्रसाद (रज्जन सेठ) ने मां सरस्वती की प्रतिमा की स्थापना कराई। 1973 में श्री अष्टभुजी माता, श्री अंबे माता, श्री गायत्री माता, श्री अन्नपूर्णा माता की स्थापना के साथ ही दुर्गापूजा महोत्सव में तब्दील हो गया।

शहर के दुर्गापूजा महोत्सव से प्रेरित होकर जिले केे सभी तहसीलों व कस्बाई क्षेत्रों में भी प्रतिमाओं की स्थापना की जाने लगी है। जिले का दुर्गापूजा महोत्सव भव्यता के लिहाज से पूरे देश में पश्चिम बंगाल के बाद दूसरे स्थान पर माना जाता है।

साल वर्ष 72 में प्रतिमाओं की संख्या में बढोत्तरी हुई और तब से धीरे-धीरे प्रतिमाओं की संख्या बढती गई. आज शहर में तकरीबन 200 प्रतिमाएं स्थापित होती हैं.साल दर साल बढ़ रही समारोह की भव्यता को देखते हुए जिम्मेदारों ने इसे विधिवत आयोजित करने की आवश्यकता महसूस की लिहाजा सर्वदेवी पूजा समिति के नाम से संगठन बना कर इसका आयोजन किया जाने लगा बाद में कुछ विवादों के चलते केन्द्रीय संगठन का नाम बदलकर केन्द्रीय पूजा व्यवस्था समिति कर दिया गया. इस ऐतिहासिक समारोह के भव्यतम बनाने के लिये महीनों पहले से तैयारियां की जाती हैं.

  बाहर प्रदेशों के कारीगरों को बुलाकर उनसे विशालकाय और मंदिरनुमा पंडाल बनवाये जाते हैं. उनमें जबरदस्त सजावट की जाती है. बांस की खपच्ची और रंगीन कपड़ों से तैयार पंडाल देखकर असली और नकली का अंदाजा लगाना मुश्किल होता है.

इस समारोह में दूर दराज से लाखों श्रद्धालु शिरकत करते हैं नगर की पूजा समितियां उनके खाने पीने का पूरा प्रबंध करती हैं. जगह-जगह भंडारे चलते हैं. केन्द्रीय पूजा व्यवस्था समिति के लोग हर पल नजर बनाये रखते हैं. यातायात को सुगम बनाने और शांतिव्यवस्था बनाये रखने के लिये जिला प्रशासन पूरी तरह मुस्तैद रहता है. महीनों पहले से ही जिला प्रशासन भी तैयारियों का जायजा लेना शुरू कर देता है।

 शोभा यात्रा रूट और विसर्जन स्थल पर पूरी नजर रखी जाती है.छह दशकों से चला आ रहा यह समारोह केवल हिन्दुओं का पर्व न होकर सुलतानपुर का महापर्व बन चुका है . प्रशासन भी यहां की गंगा जमुनी तहजीब को देखकर पूरी तरह आश्वस्त रहता है. यहां रहने वाले किसी भी मजहब के लोग जिस तरह इस महापर्व में बढ चढ़कर हिस्सा लेते हैं वह एक मिसाल है.

देश के दूसरे हिस्सों में दशमी को विसर्जन हो जाता है जबकि यहां उसी दिन से यह महोत्सव परवान चढता है. रावण दहन के बाद जो मेले की शुरुआत होती है तो फिर विसर्जन के बाद ही समाप्त होता है. पांच दिनों तक चलने वाले समारोह के बाद पूर्णिमा को विसर्जन शुरू होता है. नगर की ठठेरी बाजार में बड़ी दुर्गा प्रतिमा के पीछे एक एक करके नगर की सारी प्रतिमायें लगती हैं. फिर परम्परागत रूप से जिलाधिकारी विसर्जन के लिये हरी झंडी दिखाकर पहली प्रतिमा को रवाना करते हैं.

यह प्रतिमायें नगर के विभिन्न मार्गों से होती हुई सीताकुंड घाट पर गोमती तट पर बने विसर्जन स्थल तक पहुंचती हैं. तकरीबन डेढ़ सौ से ज्यादा मूर्तियों के विसर्जन में करीब 36 घंटे का वक्त लगता है. यही विसर्जन शोभा यात्रा यहां का आकर्षण है.

ऐसे निकलती है विसर्जन यात्रा

परम्पराओं के अनुसार, दुर्गापूजा महोत्सव की विसर्जन यात्रा की अगुवाई हनुमानजी करते है उनके नेतृत्व में ठठेरी बाजार स्थित बड़ी दुर्गामाता हैं। इसके बाद काली माता से मिलने के बाद वह भी दुर्गामाता के पीछे चलने लगती है और फिर आवंटन के हिसाब से सभी समितियां एक एक कर लाइन में लगती रहेंगी।

 यह विसर्जन यात्रा ठठेरी बाजार से मालगोदाम तिराहा, रुद्रनगर, अस्पताल रोड़, शाहगंज चौराहा, गन्दा नाला, डाकखाना चौराहा, चौक होते हुए गल्ला मंडी, कोतवाली के पीछे होकर बस स्टैंड के बाद तिकोनिया पार्क, दीवानी चौराहे से पर्यावरण पार्क होते हुए सीताकुंड घाट पर पहुंचेगी, वहीं विसर्जन यात्रा पूरी होकर विसर्जित हो जाएंगी ।

दुर्गापूजा महोत्सव से जुड़े व्यवसायियों को महोत्सव में आर्थिक लाभ वा अच्छी कमाई होती है जैसे टेंट हाउस व्यवसायी, साउंड, लाइट का काम करने वाले लोगों को रोजगार मिलता है । इसके साथ ही विसर्जन यात्रा में बैंड व डीजे बजाने वाले लोगों को भी फायदा होता है । दुर्गापूजा महोत्सव में आस-पड़ोस के जनपद से लोग मेला देखने पहुंचते हैं। इसकी वजह से स्थानीय व्यवसायियों को लाभ होता है। रिपोर्ट के मुताबिक एक दिन मैं करीब 5000 से 10000 लोग मेले में आते है