हिन्दुस्तान में विकास की रोशनी के लिए भी छटपटाहत बरकरार


हिन्दुस्तान अपना है और गांव, जवार, सहूलियत भी अपनी है। लेकिन व्यवस्था में सहभागी बनने में बड़ी किल्लत है।  आम आदमी अपने अधिकार के लिए आज भी शिकायत दर्ज कराता है। इससे जाहिर है कि व्यवस्था के प्रबधंन में कही न कहीं खोट जरूर है। झोपड़ी का असियाना आज भी कई दसक बाद गांव और शहर में बनाकर रहने के लिए लोग मजबूर है। नशा पहले भी थी और आज भी है हमारी परम्परा समाज दोनों को बर्बाद कर रही है। हिंसा द्वेष से लोगों को मुक्ति नही मिल रही है। जिन्हें नौकरी मिली वेे भी परिवार और समाज से परेशान है जिन्हें रोजगार मिला वे भी सच्चाई से काम करने को तैयार नही। त्याग बलिदान करने वाले भी आज याद नही किये जाते। जिनके पास मिलकियत है उन्हें सब सम्मान देते हैं । और चाह कर भी सच्चें मार्ग पर चलने से  लोग विचलित हो जाते  हैं जनहित ऐसे में कैसे समाहित हो यह बड़ी दुविधा भरी बात है। 



आज सूचना प्रौद्योगिकी का इतना चलन है कि बिना आनलाइन प्रक्रिया अपनाऐ किसी को फायदा मिल पाना मुश्किल है। ऐसे व्यवस्था में केन्द्र और प्रदेश सरकार में आपसी तालमेल का अभाव सुनने को मिल  रहा है। किसानों की फसल बर्बाद हुईं उन्हें फसल सुरक्षा की बीमा नही मिल पायी। और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना में आधार कार्ड और बचत खाते में तालमेल के अभाव में चालीस हजार से अधिक किसान सुविधा दो हजार  रूपयें चैथे माह पाने से वंचित है। इनकी बात कौन सुने। इण्टरनेट की सुविधा जिलें भर में अति कमजोर है। तो वही बिजली की आपूर्ति भी सुस्त है। नहर नलकूप भी जनहित के काबिल कहने में संकोच लगता है। बैल गाड़ी तांगा रिक्सा  गुजरे जमाने की बात हुई इंधन चलित बस आॅटो जीप ईरिक्सा अब पराया हो चला। सरकारी बस और रेल कब आयेगी और कब जायेगी। संचालन व्यवस्था ही चरमराई है।



 पेट्रोल पंप, गैस एजेेंसी, उचित दर विक्रेता राजकीय कृषि बीज भंडार, रसायन उर्वरक, विक्रेता, खाद्य सामग्री, होटल रेस्टोरेंट, आदि में मिलावट, घटतौली अधिक मूल्य वसूली तो आम बात हो चली है। राजस्व, विकास, पंचायत, सुरक्षा आदि मामलें में लोग उलझ जाते है। कोई फरियाद सुनने को तैयार नही। भारत स्वच्छ मिशन, स्वच्छ पेेयजल, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, बेसिक उच्च शिक्षा भी काबिले तरीफ नही  रह गयी। ग्रामीण सम्पर्क मार्ग, जलनिकास नाली और सड़को की पटरियां भी सरकारी विभाग की सही कहानी अपने आप वंया कर रही है।


 
 ग्राम पंचायत, क्षेत्रपंचयात, जिला पंचायत की बैठकें अब उतनी ओजनदार नही रह गयी है। अब विभाग के आला अधिकारी बैठकों से कन्नी काटते हैं व्यवस्था की मूल  कड़ी पंचायत है। जहाॅ पर खुली बैठकें एक दशक से प्रभावित हो रही है। मुनादी और एजेंडे अपवाद स्वरूप सुनने देखने को मिलता है। गांव शहर में बिजली के खंभों में लगी सोडियम लाइट भी छमाही भर में लुकाछिपी का खेल बताती है। कुएं तो सूख गये और इण्डिया मार्ग टू हैंडपंप के मरमम्त में ही लोगों को पापड़ बेलने पड रहे है। तो वहीं रिवोर कितने हुए वर्ष भर की रिपोर्ट देने में कर्मचारियों को अधिकारी की बैठक में आना कानी की आवाज सुनाई पड़ती है। अब तो योजनाओं में मजदूरों के मानव सृजन की बात गुजरे जमाने की होती जा रही है। अपना तालाब योजना, भूमि संरक्षण की गोमती बाढ़ नियंत्रण, मनरेगा आदि में जेसीबी टेक्टर में मजदूरों का हक छीन रही है। नहर सड़क नाला की साफ-सफाई मरम्मत निर्माण मे भी मजदूरों का रिस्ता दूर होता जा रहा है। 



 सरकारी अर्थसरकारी, मान्यता प्राप्त, वित्तविहीन, वित्त पोषित, अपंजीकृत शिक्षण संस्थान में काम चलाउ व्यवस्था धीरे धीरे शुरू हो चली है। मानदेय इतना कम है कि रोजीरोटी के बावजूद लोगों के परिवारो में आर्थिक संकट की लहर चल  रही है। अपंजीकृत कोचिंग के संचालक में छात्र अभिभावकों भा रहा है। विद्युत विभाग राजस्व विभाग विकास विभाग और बैंक शाखाओं में संबिदा की तैनाती इस कदर हावी हो रही है। कि समय से काम हो पाना मुश्किल है शिकायत और सिफारस दोनों बेअसर लग रही है। 



 मंदिरा, इमारती लकडी, खनन, जन सुरक्षा आदि भी कानून के दायरे से दर किनार है अबैध कारोबारियों के लिए फायदेंमंद की  बात सुनाई देने लगी। खेत खलिहान, सब्जीमंडी, के कामों में अब किसानों की रूची नही  रही है। रसायन के उत्पादों से लोग भाग रहे है। और जैविक खेती के उत्पादों के नाम पर  लोग भ्रमित है आम के बाग भी अब टी साले फल दे रहे है। बिना दवाओं के छिडकाव किये फलों का और सब्जियों का उत्पाद मिल  पाना मुश्किल है। इनके सरंक्षण के लिए संसाधन का भी बेहतर उपलब्धता नही है। वाहन प्रदूषण से लोग अब परेशानी महसूस कर रहे है। हिंसा और दुघर्टना घटित होने के बाद जीवन को बचाने के लिए लोगों में छटपटाहट है लेकिन संसाधन नदारद है।


हरिकेश यादव - इंडेविन टाइम्स द्वारा भेजा गया लेख