लहसुन की खेती कैसे करें


लहसुन एक बहुत ही महत्वपूर्ण फसल है.  भारत में इसका ज्यादातर प्रयोग मसाले के रूप में किया जाता है.  इसमें एक वाष्पशील तेल पाया जाता है जिसका प्रयोग विभिन्न प्रकार के बिमारीयों को ठिक करने में किया जाता है.  इसके रोजाना प्रयोग से पाचन सही रहता है और यह मानव रक्त में कोलेस्ट्रॉल भी कम करता है.  लहसुन में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, फॉस्फोरस, कैल्सियम आदि प्रचूर मात्रा में पाई जाती है. इसका प्रयोग प्रतिदिन के भोजन के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के प्रसंस्कृत उत्पाद जैसे लहसुन का अचार, लहसुन की चटनी, लहसुन का पाउडर तथा लहसुन पेस्ट आदि बनाने में भी किया जाता है. प्रसंस्करण इकाईयों के स्थापित होने से अब लहसुन कि मांग पूरे वर्ष रहती है.  अत: किसान भाई इसकी खेती से अपनी आय कई गुणा तक बढ़ा सकते हैं.


लहसुन की उनन्त प्रजातियाँ:-


1. एग्रीफाउंड सफेद:- यह सफेद रंग के छिलके वाली किस्म है. इसके एक कंद में 20-25 कलियां होती है. यह लगभग 120-125 दिनों में तैयार हो जाता है जिससे 120-130 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिल जाता है.


2. एग्रीफाउंड पर्वती:- यह सफेद छिलके वाली किस्म है. यह पर्वतीय क्षेत्रों के लिये बहुत अच्छा किस्म है.  इसके बल्ब बड़े आकार के होते हैं जिसमें 10-16 बड़े आकार की कलियां होती है. यह लगभग 120-130 दिनों में तैयार हो जाता है तथा 175-225 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिल जाता है.


3. यमुना सफेद-1:- यह सफेद एवं मध्यम आकार वाली किस्म है. इसके एक कंद में 25-30 कलियां होती है.  इसकी एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से लगभग 150-175 कुन्तल तक उपज प्राप्त होती है.


4. यमुना सफेद-2:- यह सफेद छिलके एवं मध्यम आकार की प्रजाति है. इसके एक कंद में 35-40 तक कलियां होती है. इसकी प्रति हेक्टेयर 150-200 कुन्तल तक उत्पादन मिल जाता है.


5. यमुना सफेद-3:- यह सफेद एवं बड़े आकार के कंदों वाली किस्म है. इसकी पत्तियां चौड़ी होती है तथा इसके एक कंद में 15-16 बड़े आकार की कलियां होती है.


मौसम एवं जलवायु:-


लहसुन पाले के प्रति सहनशील होता है परन्तु पौधों के उचित बढ़वार एवं विकास हेतु ठंडे तथा आद्र जलवायु की आवश्यकता होती है. कंदों के परिपक्वता के लिए शुष्क जलवायु उचित रहता है.


मृदा एवं मृदा की तैयारी:-


लहसुन की खेती के लिए उच्च उर्वरता वाली उचित जल निकास युक्त दोमट या चिकनी दोमट जिसका पी.एच. मान 6-7 हो, उपयुक्त होता है. लहसुन की उच्च उत्पादन के लिए खेत को एक बार मिट्टी पलट हल से तथा एक बार रोटावेटर या दो से तीन बार कल्टीवेटर से जुताई करके पाटा लगा दें जिससे बड़े मिट्टी के ढ़ेले टूट जाये और मिट्टी मुलायम तथा भूरभूरी हो जाये. यदि खेत में नमी कम हो तो बुवाई से 10 दिन पहले ही पलेवा अवश्य कर दें.  इससे कलियों का जमाव अच्छा होता है.


लहसुन की खेती में पोषण प्रबंधन:-


लहसुन के सफल उत्पादन में पोषक तत्वों का बहुत ही महत्व है.  लहसुन में जड़ के अच्छे विकास एवं मिट्टी की जल संरक्षण छमता बढ़ाने के लिए 250-300 कुन्तल गोबर की सड़ी खाद बुवाई के 10-15 दिनों पूर्व ही खेत में अच्छी तरह से मिला दें.  इसके अतिरिक्त 80-100 कि.ग्रा. नत्रजन, 60-65 कि.ग्रा. फॉस्फोरस एवं 80-90 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना उपयुक्त होता है.


बुवाई का समय:-


उत्तर भारत में लहसुन की बुवाई अक्टूबर-नवम्बर माह में करते है तथा पर्वतीय क्षेत्रों में मार्च-अप्रैल माह में करते हैं. कन्द के लिए अगेती ही अच्छी रहती है.


पौध प्रवर्धन एवं बीज की मात्रा:-


लहसुन का प्रवर्धन पत्तियों या कलियों द्वारा किया जाता है.  कुछ किस्मों में छोटे-छोटे कंदों से भी प्रवर्धन किया जाता है.  एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में लहसुन की बुवाई हेतु 400-500 कि.ग्रा.स्वस्थ कलियों की आवश्यकता होती है.


बुवाई की पद्धति एवं बीज शोधन:-


लहसुन के बुवाई की समतल क्यारियों में, मेंड़ों पर या पौधशाला में पौध तैयार करके भी कर सकते हैं. पौधशाला विधि से बुवाई सभी जगहों पर प्रचलित नही है. कलियों को कवक एवं जीवाणु जनित रोगों से सुरक्षित रखने हेतु एक ग्राम कार्बेंडाजिम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर उपचारित अवश्य कर दें.


बीज की बुवाई एवं दूरी:-


1. समतल क्यारियों में बुवाई:- छोटे- छोटे समतल क्यारियों में कलियों को 10 से.मी. लाइन से लाइन तथा 7-8 से.मी. पौधे से पौधे की दूरी पर बुवाई करनी चाहिए.


2. मेंड़ों पर बुवाई:-मेंड़ों पर बुवाई करने से लहसुन का कंद समतल क्यारियों में बोने के अपेक्षा जल्दी एवं बड़े आकार का होता है. इसमें 40-45 से.मी. चौडी़ मेंड़ बनाते हैं जिसके बीच में सिंचाई एवं जल निकास हेतु 30 से.मी. की नाली अवश्य होना चाहिए.  कलियों को मेंड़ों पर 10 से.मी. की दूरी पर बुवाई कर देते हैं.


3. पौधशाला में पौध तैयार करके बुवाई करना:-यह पद्धति प्रतिकूल के लिए अच्छी रहती है. इस पद्धति में सबसे पहले पौधशाला में पौध तैयार करते हैं. छोटे-छोटे क्यारियों में कलियों को पास-पास लगा देते हैं. 40-45 दिन बाद छोटे पौधों को उखाड़कर खेत में 15 से.मी. कतार से कतार तथा 10 से.मी. पौधे से पौधे की दूरी पर रोपाई कर देते हैं,यह पूर्वांचल में नहीं है.


सिंचाई प्रबंधन:-


खेत में पर्याप्त नमी होने पर लहसुन में प्रथम सिंचाई बुवाई के एक सप्ताह बाद करें परन्तु नमी कम होने की स्थिति में बुवाई के तुरंत बाद हल्की सिंचाई जरूर करें.  समय-समय पर नमी के अनुसार सिंचाई करते रहें, जब फसल परिपक्व होना शुरू हो जाये तो खुदाई के 10-12 दिन पहले ही सिंचाई पूणेतया बंद कर दें.


निराई गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण:-


लहसुन में निराई-गुड़ाई अतिआवश्यक है.  प्रथम निराई-गुड़ाई बुवाई के 25-30 दिन बाद तथा दूसरी बार 45-50 दिन बाद अवश्य करें.  इससे जड़ों का विकास अच्छा होता है और साथ-साथ खरपतवार भी निकल जाता है.  खरपतवार नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशी रसायन का प्रयोग बहुत कारगर होता है.  इससे खरपतवार निकालने का अतिरिक्त खर्च बच जाता है.  इसके लिए पेंडिमेथलीन 3.35 लीटर 1000 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के 72 घण्टे के अन्दर छिडकाव करने से 30 दिन तक खरपतवार से मूक्ति मिल जाती है.  जिससे खरपतवार का प्रतिकूल प्रभाव फसल पर नहीं पड़ता है फलतः उपज बढ जाती हैं.


लहसुन की खुदाई:-


जब पौधे पीले होकर गिरने लगे तब लहसुन की खुदाई कर लेंA सामान्यत: लहसुन की खुदाई हाथ से ही करते हैं.  खुदाई करने के बाद छायेदार स्थान पर 7-8 दिन तक रखेंA इसके बाद कंदों से पत्तियों को 2.5 से.मी. छोड़कर काट लें.


उपज:-लहसुन की उन्नत तकनीक से खेती से औसतन 150-200 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त हो जाता है. कुशल कृष्क इससे भी अघिक उपज प्राप्त करते है।


लहसुन का भंडारण:-


लहसुन का भंडारण किसान भाईयों के लिए बहुत ही फायदे का सौदा है.  यदि किसान भाई अपने उत्पाद का भंडारण करना चाहते है तो इसके लिए सरकार द्वारा अनुदान भी दिया जाता है.  लहसुन को 6-8 माह तक 70 प्रतिशत से कम आद्रता एवं  हवादार स्थान पर रख सकते है.


लहसुन की फसल पर लगने वाली बिमारियां :-


1. आद्र गलन:- यह एक फफूँदी जनक रोग है जो अंकुरण से लेकर पौधे के बढ़वार तक प्रभावित करता है. इसमें पौधे का जमीन से लगने वाला भाग सड़ने लगता है और पौधा मर जाता है.


रोकथाम:- बुवाई से पहले कैप्टान 2-3 ग्राम या ट्राइकोडर्मा विरिडी 4 ग्राम प्रति कि.ग्रा. कलियों को उपचारित अवश्य करें.


2. लहसुन का बैंगनी धब्बा रोग:- यह एक बहुत घातक फफूँदी जनक रोग है. यह पौधे के किसी भी अवस्था में आ सकता है.  प्रारम्भ में छोटे-छोटे बैंगनी धब्बे बनते है तथा बाद में काले हो जाते हैं और पत्तियां सूखकर गिर जाती है.


रोकथाम:-


1. नत्रजन युक्त उर्वरकों का प्रयोग बहुत अधिक नही करना चाहिए.


2. मैंकोजेब 2.5-3.0 ग्राम तथा कार्बेंडाजिम 1.5-2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10-12 दिन के अंतराल पर अदल-बदल कर छिड़काव करें.


3. लहसुन का काला धब्बा:- यह भी एक कवक जनित रोग है जिसमें पौधों की पत्तियों पर काले रंग के उभार बन जाता है. अंत में पत्तियां सूखकर गिर जाती है और पौधा कमजोर हो जाता है.


रोकथाम:- कार्बेंडाजिम 1.5-2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10-12 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें.


1. लहसुन का आधार विगलन:- यह कवक जनित रोग का प्रकोप अधिक ताप एवं आद्रता वाले क्षेत्रों में ज्यादा होता है. इसमें पौधों की जड़ें सड़ने लगती है और पौधे आसानी से उखड़ जाते है.  अत्यधिक प्रकोप से कंद भी सड़ने लगता है और पौधा सूख जाता है.


रोकथाम:-


1. इस रोग के कारक मृदा में रहते हैं, अत: उचित फसल चक्र अवश्य अपनायें.


2. ट्रायकोडर्मा विरिडी 5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद में मिलाकर खेत में डालें.


लहसुन पर लगने वाले प्रमुख कीट:-


1. थ्रिप्स:- यह एक लहसुन का प्रमुख नुकसानदायक कीट है. यह आकार में छोटे होते है तथा इसके अभ्रक तथा प्रौढ़ दोनों पत्तियों का रस चुसते रहते हैं जिससे पौधा कमजोर हो जाता है.


रोकथाम:- इसके रोकथाम के लिए साइपरमेथ्रिन (10 ई.सी.) का 0.5 मि.ली. या डाइमेथोएट 1.5 मि.ली. मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें.


1. सफेद सूंडी:- यह कीट पौधों के जमीन के अंदर वाले भाग को काटकर खा जाते हैं जिससे पौधे आसानी से उखड़ जाते है और पौधा सूख जाता है.


रोकथाम:- इसके रोकथाम के लिए फोरेट (10 जी) 10 कि.ग्रा. या कार्बोफ्यूरॉन (3 जी) 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में अंतिम जुताई के समय ही मिला दें.


1. दीमक:- दीमक बहुत ही घातक कीट है. यह किसी भी अवस्था में पौधे को नुकसान पहुंचाते है तथा कंदों को जमीन के नीचे से खा जाते है और पौधा सूख जाता है जिससे उपज में भारी कमी आ जाती है.


रोकथाम:-


1. हमेशा अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद का उपयोग करें.


2. पिछलेफसल के अवशेष को नष्ट कर दें.


3. हेप्टाक्लोर पाउडर 90-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में अंतिम जुताई के समय ही अच्छी तरह मिला दें.


लहसुन के सफल उत्पादन हेतु आवश्यक सावधानियां


बीज हमेशा पंजीकृत क्रय केन्द्र से ही लें.


कन्दो से स्वस्थ तथा समुचित विकसित कलियो को ही चयन करें छोटी कलियो को अलग कर दे.


कलियों को बोने से पहले फफूंदीनाशक रसायन से उपचारित अवश्य करें.


बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी के लिए खेत को पलेवा अवश्य कर लें.


रासायनिक खयपतवार नियर्तण पद्धति को अपनाएं.


किसी भी रसायन के छिड़काव से पहले 1 मि.ली. शैम्पू प्रति लीटर घोल में अवश्य मिलायें जिससे रसायन पत्तियों पर चिपके रहें.


फफूंद नाशक व कीट नाशक का छिड़कना लाभकारी रहता है.


कन्द विकसित होते समय नतृजन युक्त उवृरक का प्रयोग न करें.


वधि के लिए भण्डाति कन्द पर मैलिक हाइडाजाइड का प्रयोग न करें.


फसल कटाई के 10-12 दिन पहले ही सिंचाई बंद कर दें.


लहसुन का भंडारण शुष्क एवं हवादार स्थान पर ही करें.


भंडारण में कलियों का अंकुरण रोकने के लिए 3.0 ग्राम मैलिक हाइड्राजाइड प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर खुदाई के 10 दिन पहले ही छिड़काव करें.