लेखिका-विनीता मिश्रा ( लखनऊ)
कौन सफर- तैयारी में
अब मैं गठरी बांध रही?
किसके दर्शन की खातिर
अपने मन को साध रही??
वो मुझे बुलाता मिलने को
मैं दूर देश से आ भी गई।
हाथ बढ़ाता मुझ तक वो
मैं हाथ छुड़ा कर भाग रही।।
अलग अलग से रस्तें हैं
अलग हमारी दुनिया है।
आ पाऊंगी उसमें क्या
फीता लेके माप रही।।
भाव सभी खुल जाते हैं
आंखों से या बातों से ।
बंद किवडियां कर के मैं
सब भावों को ढांक रही।।
करते-करते थकी नहीं
चलते-चलते रुकी नहीं।
आज हुआ क्या सूने में
बैठे -बैठे हांफ रही।।
वहां नहीं अब जाना है
जहां मेरा नहीं ठिकाना है।
जहां से दूजा सफर ना हो
उस मंजिल को ताक रही.......